सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में स्पष्ट किया है कि हिन्दू उत्तराधिकारी अपनी पैतृक कृषि भूमि बेचने से पहले इसे अपने परिवार के किसी सदस्य को प्रस्तावित करना अनिवार्य है। यह निर्णय हिन्दू उत्तराधिकार कानून (Hindu Succession Law) की धारा 22 के तहत लिया गया, जिसका उद्देश्य पारिवारिक संपत्ति को बाहरी व्यक्तियों के हाथों में जाने से रोकना है।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला और उसके पीछे का तर्क
बता दें, यह मामला हिमाचल प्रदेश के दो भाइयों, नाथू और संतोष, से जुड़ा हुआ है। जस्टिस यूयू ललित और एमआर शाह की सुप्रीम कोर्ट बेंच ने इस फैसले में कहा कि धारा 22 का मुख्य उद्देश्य पारिवारिक संपत्ति को संरक्षित रखना है। फैसले के अनुसार, यदि कोई उत्तराधिकारी अपनी पैतृक संपत्ति का हिस्सा बेचना चाहता है, तो उसे पहले यह प्रस्ताव परिवार के अन्य सदस्यों को देना होगा।
हिन्दू उत्तराधिकार कानून और धारा 22 का महत्व
हिन्दू उत्तराधिकार कानून की धारा 22 के तहत प्रावधान है कि किसी व्यक्ति की मृत्यु बिना वसीयत के होने पर उसकी संपत्ति उसके उत्तराधिकारियों में बंट जाती है। यदि उत्तराधिकारी अपना हिस्सा बेचना चाहता है, तो अन्य उत्तराधिकारियों को इसे खरीदने का पहला अधिकार मिलता है। इस कानून का उद्देश्य न केवल पारिवारिक संपत्ति को बाहरी प्रभावों से बचाना है, बल्कि पारिवारिक संबंधों को भी मजबूत करना है।
धारा 4(2) और काश्तकारी अधिकारों का प्रभाव
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि धारा 4(2) का प्रभाव धारा 22 के इस नियम को खत्म नहीं करता। धारा 4(2) का संबंध काश्तकारी अधिकारों (Tenancy Rights) से है और इसे पारिवारिक भूमि की बिक्री या स्वामित्व के संदर्भ में नहीं देखा जा सकता। कोर्ट ने कहा कि धारा 22 का मुख्य उद्देश्य पैतृक संपत्ति को बाहरी व्यक्तियों के स्वामित्व में जाने से रोकना है।
मामला: नाथू बनाम संतोष
इस विवाद की जड़ नाथू और संतोष के पिता लाजपत की मृत्यु के बाद उनके बीच कृषि भूमि के विभाजन से जुड़ी है। संतोष ने अपने हिस्से को एक बाहरी व्यक्ति को बेचने का प्रयास किया, जिसके खिलाफ नाथू ने कोर्ट में याचिका दायर की। ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट ने नाथू के पक्ष में फैसला सुनाया, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने भी बरकरार रखा। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि नाथू को धारा 22 के तहत अपने हिस्से पर प्राथमिकता का अधिकार है।